Monday, June 27, 2011

प्रतिदिन

मेरा बचपन हिंदी साहित्य के बीच बीता है | ऐसा नहीं है कि मेरे में कोई जन्मगत हुनर था पढ़ने का | इसका श्रेय जाता है मेरे माता-पिता को और मिस तर्वे को | दोनों का वर्षों से सहित्य से काफ़ी गहरा जुड़ाव और लगाव था | दोनों ने मिल कर हिन्दी की कई पत्रिकाएँ भी निकाली थी | कुछ मासिक, कुछ त्रैमासिक और कुछ हस्तलिखित | मेरी माँ कॉलेज में हिन्दी की प्राध्यापिका थी और पिताजी पत्रकार, यह एक और वजह थी हमारे हिन्दी से लगाव की | उन दोनों की वजह से शायद मेरी बहिन का झुकाव भी जाने-अनजाने साहित्य की तरफ़ हो चला था | ये जुड़ाव तब ज़्यादा हो गया जब माँ के कॉलेज की प्रिंसिपल मिस तर्वे ने माँ को घर बुलाया और कहा कि सरोज हम कुछ किताबें आपको देना चाहते है | जब माँ वे किताबें घर लाई तो मुश्किल यह आई कि उनको कहाँ रखा जाए | घर छोटा था | हमारे कमरे में दो अलमारियाँ थी | वहाँ उन किताबों को जमा दिया गया | पता नहीं उन किताबों की खुश्बू ही कुछ ऐसी थी कि हम किताबें उठाते और पन्ने पलटने लगते | उस समय मनोरजंन के साधन भी बहुत सीमित थे | स्कूल की पढ़ाई से उब ऊर्जारहित मन को किताबें फिर से ऊर्जा देने का साधन बन गई | प्रेमचंद की गोदान, निर्मला, रंगभूमि, कफ़न, गबन और अन्य कहानिंया, जयशंकर प्रसाद की तितली, इरावती, ध्रुवस्वामिनी, राजेन्द्र यादव की सारा आकाश और न जाने कितनी अन्य किताबें ऐसी थी जिनको सोते, बैठते और खाते समय पढ़ने का नशा सा हो गया था | मैं कभी भी कोई कविता या लेख नहीं लिख पाया | लेकिन जब मेरी बहिन जो उस समय आठवीं कक्षा में थी, स्कूल में मेरी प्रिय पुस्तक पर लेख लिखने पर जयशंकर प्रसाद की तितली की विवेचना कर डाली थी | यह प्रसंग स्कूल की अध्यापिकाओं के लिये अपच का कारण बन गया | पिताजी के अखबार निकालने के कारण अखबार पढ़ने की भी आदत में कुछ सुधार हुआ था | घर में चार पाँच अखबार आने के कारण सुबह का समयाभाव भी अखबार खंगालने में व्यवधान नहीं डाल पाया |

शरद जोशी के लेखों ने मुझे बहुत प्रभावित किया | हिंदी व्यंग्य को एक नये स्तर पर ले जाने का श्रेय उनको जाता है और मेरे अखबार पढ़ने की आदत का श्रेय उनके लेखों को बहुत हद तक जाता है | उनकी मृत्यु साहित्य के लिये तो एक बहुत बड़ा नुकसान था पर मेरे लिये उससे भी बड़ा | खाली ख़बरें पढ़ने के लिये अखबार पढ़ना मुझे व्यर्थ जान पड़ता है | उनका कॉलम ‘प्रतिदिन’ की जगह अखबार में आज भी खाली ही नज़र आती है | मैने उनके ‘प्रतिदिन’ के कॉलम को आज भी सहेज कर रख रखा है | वे लेख आज भी उतने ही तार्किक है जितने उस समय होते थे | उनमे से कुछ लेख मैं आप लोगों के साथ शेयर करना चाहूँगा |

1 comment:

  1. yad dila di.......Somanth Mahalay,Chandrkanta......Phir baith ker un per maa ke saath charch kerna.....tere lekh me kavisammelan nahi hain.......wo bhi to hua kerte they na.....gud keep it up!

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