Monday, May 21, 2018

राजतंत्र, प्रजातंत्र और कोहरे के पीछे का सूरज

शायद मैं कभी इतना ऑप्टिमिस्टिक नहीं रहा जितना आज हूँ। आज के इस माहौल में भी। बैठे बैठे कवि नागार्जुन की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं। शायद सही क्रम में न हो पर बहुत प्रासंगिक हैं।  यह कविता उन्होंने आपातकाल के विरोध में लिखी थी।

देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा
तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा
तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो
खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो
मौज, मज़ा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत
बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत
मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में
जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकण्ठ मोह में
यह कमज़ोरी ही तुमको अब ले डूबेगी
आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी

 पिछले कुछ सालों से एक गज़ब का दौर शुरू हुआ है। अनडिक्लेयर आपातकाल।  आम जनता में एक जबर्दस्त फाड़ दिखाई देने लगा है। यह वही दौर है जैसा आज़ादी से पहले के कुछ सालों में आया था। सरकार के द्वारा किये जा रहे अंधाधुन्द झूठ के प्रचारों और भोली जनता पर किये जा रहे प्रहारों से जनता में एक जागृति सी आ रही है। जब कभी भी कोई बहुत खराब या बहुत अच्छी स्थिति आती है तो मन अनायास ही पिछले किये कर्मो और परिस्थितियों को तोलने लगता है। मन, खुद बखुद क्रिटिकल सोच की तरफ चला जाता है। आज वही स्थिति है। टीवी पर तरक्की का इतना प्रचार आपको न चाहते हुए भी अपेक्षाओं और ज़मीनी हकीकतों के बीच के फर्क को टटोलने पर मजबूर करता है। यही प्रक्रिया इस देश को एक रेवोलुशन की तरफ ले जाने वाली है। यह दौर बहुत ज़रूरी था इस देश के प्रजातंत्र को मजबूत करने के लिए।
पहले दूरदर्शन को सरकार का भोंपू बोला जाता था। आज टीवी पर, सोशल मीडिया पर और पान की दूकान तक यह किसी न किसी से सुनाई देता है कि मीडिया भी बिकाऊ है। इसी से यह आशा जगती है कि लोगों की सोच पनपने लगी है। शायद उसे परिपक्व होने में कुछ समय लगेगा पर ऐसा होना निश्चित है।
देश के लिए जान की बाजी लगा देने वाले वीरो के चरित्र पर सवाल करने, राष्ट्रवाद को हर दिन थाली में परोस कर आपके सामने रखने की कोशिश और इतिहास को बदलने का प्रयास होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि आपकी अपनी सोच को अब और परिपक्व होना होगा, न चाहते हुए भी क्योकि आपका बच्चा आपसे सवाल करेगा तो क्या उससे आप झूठ बोल पाएंगे? इस इंटरनेट के युग मे अगर उसने आप के झूठ की बखिया खुद ही उखाड़ दी तो क्या आप उसे मुँह दिखा पाएंगे? पुरानी पीढ़ी के कुछ लोग शायद अपने खून में दौड़ती पार्टी के प्रति लगाव को दूर करने में हिचकते होंगे पर एक तबका ऐसा भी है जो घुट रहा है इस विरोधाभास में। उन्ही के विरोध के स्वर गाहे बगाहे सुनाई देने लगे है।
एक और आशा की किरण दिखाई देती है जब व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी में चर्चा होती है भक्तों और काफिरो के बीच। यह चर्चाएं सिर्फ यहीं तक सीमित नही है। मीडिया और सोशल मीडिया पर भी बाढ़ है इनकी। ऐसी चर्चाओं पर गुस्सा आना किसी भी पक्ष के लिए वाज़िब है। पर यकीन मानिए ऐसी चर्चाएं अनर्गल नही है, यह भी इस देश को एक क्रांति की और ले जा रही है। ये भक्त काफिरों को अपना ज्ञान बढाने पर मजबूर कर रहे है। हर दिन दोनों पक्ष ज्ञान के समुन्दर का मंथन करते है और विष और अमृत इन चर्चाओं में बहाते रहते है। बहुत ज़रूरी है यह मंथन। जब सब कुछ शांत होगा तो फिर से एक सिस्टम बनेगा जो पहले से सुघड़ और परिपक्व होगा
मेरे दिमाग से भी कुछ धूल हटने सी लगी है और पिछला पढ़ा याद आने लगा। याद आई फ्रांसीसी क्रांति। आज के भारत के संदर्भ में क्यों प्रासंगिक है इतनी पुरानी घटना। सन 1789 से पहले के फ्रांस में वही सब उत्प्रेरक थे जो आज के भारत मे उपलब्ध हैं। उस समय फ्रांस में कर प्रणाली बहुत असंतोषजनक थी, वहां पर सरकार व्यय को आय के अनुसार निश्चित न कर व्यय के अनुसार आय को निश्चित करती थी, उस समय की वाणिज्य नीति बहुत दोषपूर्ण और अनियंत्रित थी। आज की नीतियों पर राय आपके विवेक पर ही छोड़ना चाहूँगा। उस समय के फ्रांस में एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को अपने ऊपर कर स्वीकार नही था, समस्त शक्तियाँ एक ही व्यक्ति में केंद्रित थीं। यह बात मैं उस समय के फ्रांस की कर रहा हूँ इसे शायद सब लोग आज के भारत से न जोड़ने लग जाएं। अगर हम रूसो जो उस समय के महान दार्शनिक थे, को पढ़े तो उस क्रांति के और कारणों का पता चलता है। रूसो के अनुसार सर्वोपरि सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए, किसी एक व्यक्ति या संस्था के हाथ में नहीं। कानून को जनरल विल की अभिव्यक्ति होनी चाहिए लेकिन कानून का स्वरूप ऐसा नहीं रह गया था। भारत के संविधान में भी जनरल विल को बहुत अच्छे से डिफाइन किया है। पर क्या यहां पर भी परिस्थितियाँ कुछ वैसी ही नही है। वाल्तेयर ने चर्च के असहिष्णु होने का ज़िक्र किया। क्या यहां कुछ वर्ग असहिष्णु तो नही हो रहे हैं, गौर करना होगा इस तथ्य पर भी। और सबसे मत्वपूर्ण कारक था किसान की दयनीय हालत जिसने उस पूरे वर्ग को क्रांतिकारी वर्ग में परिवर्तित कर दिया। इसी के साथ मध्यम वर्ग अत्यधिक उपेक्षित था और उसी ने फ्रांसीसी क्रांति में नेतृत्व प्रदान किया। भारत मे किसान और मध्यम वर्ग कब तक इतना शालीन बना रह सकता है, समय ही बताएगा।
एक पक्ष शायद यह तथ्य याद दिलाए ( जैसा कि आजकल प्रथा है कि आप अपने से अच्छे से तुलना न कर अपने से बुरे को देखे तो आप को खुद अपने पर गर्व महसूस होगा) कि आप पाकिस्तान और बांग्लादेश को देखे हमारे हालात बहुत बेहतर है। इस पर मैं याद दिलाना चाहूंगा कि फ्रांस में ही क्रांति होने के क्या कारण थे जबकि बाकी देशों में तो और भी बुरे हालात थे। वहां के लोग अपनी स्थिति के प्रति जागरूक थे। किसी भी देश मे क्रांति हो सकती है बशर्ते आप यह समझे कि आपके साथ अन्याय हो रहा है। और यही जागरूकता आज इस देश मे पैदा की जा रही है। जी हाँ पैदा की जा रही है। न चाहते हुए भी। सरकारों की करनी का बाय प्रोडक्ट है क्रांति और नई व्यवस्था का जन्म।