Monday, May 21, 2018

राजतंत्र, प्रजातंत्र और कोहरे के पीछे का सूरज

शायद मैं कभी इतना ऑप्टिमिस्टिक नहीं रहा जितना आज हूँ। आज के इस माहौल में भी। बैठे बैठे कवि नागार्जुन की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं। शायद सही क्रम में न हो पर बहुत प्रासंगिक हैं।  यह कविता उन्होंने आपातकाल के विरोध में लिखी थी।

देश बड़ा है, लोकतंत्र है सिक्का खोटा
तुम्हीं बड़ी हो, संविधान है तुम से छोटा
तुम से छोटा राष्ट्र हिन्द का, तुम्हीं बड़ी हो
खूब तनी हो,खूब अड़ी हो,खूब लड़ी हो
मौज, मज़ा, तिकड़म, खुदगर्जी, डाह, शरारत
बेईमानी, दगा, झूठ की चली तिजारत
मलका हो तुम ठगों-उचक्कों के गिरोह में
जिद्दी हो, बस, डूबी हो आकण्ठ मोह में
यह कमज़ोरी ही तुमको अब ले डूबेगी
आज नहीं तो कल सारी जनता ऊबेगी

 पिछले कुछ सालों से एक गज़ब का दौर शुरू हुआ है। अनडिक्लेयर आपातकाल।  आम जनता में एक जबर्दस्त फाड़ दिखाई देने लगा है। यह वही दौर है जैसा आज़ादी से पहले के कुछ सालों में आया था। सरकार के द्वारा किये जा रहे अंधाधुन्द झूठ के प्रचारों और भोली जनता पर किये जा रहे प्रहारों से जनता में एक जागृति सी आ रही है। जब कभी भी कोई बहुत खराब या बहुत अच्छी स्थिति आती है तो मन अनायास ही पिछले किये कर्मो और परिस्थितियों को तोलने लगता है। मन, खुद बखुद क्रिटिकल सोच की तरफ चला जाता है। आज वही स्थिति है। टीवी पर तरक्की का इतना प्रचार आपको न चाहते हुए भी अपेक्षाओं और ज़मीनी हकीकतों के बीच के फर्क को टटोलने पर मजबूर करता है। यही प्रक्रिया इस देश को एक रेवोलुशन की तरफ ले जाने वाली है। यह दौर बहुत ज़रूरी था इस देश के प्रजातंत्र को मजबूत करने के लिए।
पहले दूरदर्शन को सरकार का भोंपू बोला जाता था। आज टीवी पर, सोशल मीडिया पर और पान की दूकान तक यह किसी न किसी से सुनाई देता है कि मीडिया भी बिकाऊ है। इसी से यह आशा जगती है कि लोगों की सोच पनपने लगी है। शायद उसे परिपक्व होने में कुछ समय लगेगा पर ऐसा होना निश्चित है।
देश के लिए जान की बाजी लगा देने वाले वीरो के चरित्र पर सवाल करने, राष्ट्रवाद को हर दिन थाली में परोस कर आपके सामने रखने की कोशिश और इतिहास को बदलने का प्रयास होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि आपकी अपनी सोच को अब और परिपक्व होना होगा, न चाहते हुए भी क्योकि आपका बच्चा आपसे सवाल करेगा तो क्या उससे आप झूठ बोल पाएंगे? इस इंटरनेट के युग मे अगर उसने आप के झूठ की बखिया खुद ही उखाड़ दी तो क्या आप उसे मुँह दिखा पाएंगे? पुरानी पीढ़ी के कुछ लोग शायद अपने खून में दौड़ती पार्टी के प्रति लगाव को दूर करने में हिचकते होंगे पर एक तबका ऐसा भी है जो घुट रहा है इस विरोधाभास में। उन्ही के विरोध के स्वर गाहे बगाहे सुनाई देने लगे है।
एक और आशा की किरण दिखाई देती है जब व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी में चर्चा होती है भक्तों और काफिरो के बीच। यह चर्चाएं सिर्फ यहीं तक सीमित नही है। मीडिया और सोशल मीडिया पर भी बाढ़ है इनकी। ऐसी चर्चाओं पर गुस्सा आना किसी भी पक्ष के लिए वाज़िब है। पर यकीन मानिए ऐसी चर्चाएं अनर्गल नही है, यह भी इस देश को एक क्रांति की और ले जा रही है। ये भक्त काफिरों को अपना ज्ञान बढाने पर मजबूर कर रहे है। हर दिन दोनों पक्ष ज्ञान के समुन्दर का मंथन करते है और विष और अमृत इन चर्चाओं में बहाते रहते है। बहुत ज़रूरी है यह मंथन। जब सब कुछ शांत होगा तो फिर से एक सिस्टम बनेगा जो पहले से सुघड़ और परिपक्व होगा
मेरे दिमाग से भी कुछ धूल हटने सी लगी है और पिछला पढ़ा याद आने लगा। याद आई फ्रांसीसी क्रांति। आज के भारत के संदर्भ में क्यों प्रासंगिक है इतनी पुरानी घटना। सन 1789 से पहले के फ्रांस में वही सब उत्प्रेरक थे जो आज के भारत मे उपलब्ध हैं। उस समय फ्रांस में कर प्रणाली बहुत असंतोषजनक थी, वहां पर सरकार व्यय को आय के अनुसार निश्चित न कर व्यय के अनुसार आय को निश्चित करती थी, उस समय की वाणिज्य नीति बहुत दोषपूर्ण और अनियंत्रित थी। आज की नीतियों पर राय आपके विवेक पर ही छोड़ना चाहूँगा। उस समय के फ्रांस में एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग को अपने ऊपर कर स्वीकार नही था, समस्त शक्तियाँ एक ही व्यक्ति में केंद्रित थीं। यह बात मैं उस समय के फ्रांस की कर रहा हूँ इसे शायद सब लोग आज के भारत से न जोड़ने लग जाएं। अगर हम रूसो जो उस समय के महान दार्शनिक थे, को पढ़े तो उस क्रांति के और कारणों का पता चलता है। रूसो के अनुसार सर्वोपरि सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए, किसी एक व्यक्ति या संस्था के हाथ में नहीं। कानून को जनरल विल की अभिव्यक्ति होनी चाहिए लेकिन कानून का स्वरूप ऐसा नहीं रह गया था। भारत के संविधान में भी जनरल विल को बहुत अच्छे से डिफाइन किया है। पर क्या यहां पर भी परिस्थितियाँ कुछ वैसी ही नही है। वाल्तेयर ने चर्च के असहिष्णु होने का ज़िक्र किया। क्या यहां कुछ वर्ग असहिष्णु तो नही हो रहे हैं, गौर करना होगा इस तथ्य पर भी। और सबसे मत्वपूर्ण कारक था किसान की दयनीय हालत जिसने उस पूरे वर्ग को क्रांतिकारी वर्ग में परिवर्तित कर दिया। इसी के साथ मध्यम वर्ग अत्यधिक उपेक्षित था और उसी ने फ्रांसीसी क्रांति में नेतृत्व प्रदान किया। भारत मे किसान और मध्यम वर्ग कब तक इतना शालीन बना रह सकता है, समय ही बताएगा।
एक पक्ष शायद यह तथ्य याद दिलाए ( जैसा कि आजकल प्रथा है कि आप अपने से अच्छे से तुलना न कर अपने से बुरे को देखे तो आप को खुद अपने पर गर्व महसूस होगा) कि आप पाकिस्तान और बांग्लादेश को देखे हमारे हालात बहुत बेहतर है। इस पर मैं याद दिलाना चाहूंगा कि फ्रांस में ही क्रांति होने के क्या कारण थे जबकि बाकी देशों में तो और भी बुरे हालात थे। वहां के लोग अपनी स्थिति के प्रति जागरूक थे। किसी भी देश मे क्रांति हो सकती है बशर्ते आप यह समझे कि आपके साथ अन्याय हो रहा है। और यही जागरूकता आज इस देश मे पैदा की जा रही है। जी हाँ पैदा की जा रही है। न चाहते हुए भी। सरकारों की करनी का बाय प्रोडक्ट है क्रांति और नई व्यवस्था का जन्म।

Saturday, June 6, 2015

AN OPEN LETTER TO SHRI ASHOK KUMAR

AN OPEN LETTER TO SHRI ASHOK KUMAR MATHUR, CHAIRMAN, 7TH CPC.
Dear Justice Ashok Mathur,
I, Ravi Sinha, Assistant Commandant, joined the CRPF four years ago as a young officer and presently i am posted to a battalion deployed along the Chattisgarh-Telangana border in the name of conducting anti- naxal operations by the GoI. As the Naxals or the Maoists are our own brothers and sisters, I don't face any threat to my life or limbs from them. We live amicably. Every morning I go to their camps to say " Good Morning " and have a cup of tea with them. They reciprocate by coming to my camp in the evening to play volleyball and then we all enjoy beer, music and dance. 
As I am enjoying all the luxuries of life in my present posting I am very sure that when I am transferred out to another place or jungle, to be more precise, I will keep on enjoying the same luxury.My dear Paki friends are eagerly waiting for me in J&k as I had made a promise to play Nukka- Chhipi with them and I will not break my promise. In a nutshell, I am enjoying picnic here and very confident that this picnic is not going to end anywhere in future. 
Now I would like to draw your attention to the fact that apart from eating, meeting and cheating the Government, I am not involved in any economically productive task. in other words, I am being paid a huge amount of money by the Govt unnecessarily for doing nothing. The figures in my bank account is skyrocketing and putting the Swiss bank account holders to shame. As the Govt has provided me five star accomodation and facilities like our honourable MPs get, I fail to understand how and where to spend my salary. As I live in jungles, there is no impact of inflation on me. Thus, please take back my dearness allowance. I face no threat to life, please take back my risk allowance. As I belong to a family of billionaires, and planning to purchase Antilia from Mukesh, I don't need HRA. I do not need LTC as the Govt. provides me free tourism package throughout India on the occasions of election, agitations, riots and natural disasters. Last but not the least, take back NPS also and instead provide OROP to our poor army boys. 
Hope to see some positive action from you,
Yours sincerely,
Ravi Sinha
AC, CRPF

Monday, June 27, 2011

काकभुशुंड और वित्तमंत्री

काकभुशुंड और वित्तमंत्री

एक राज्य का नया वित्तमंत्री काकभुशुडं जी से मिलने गया और हाथ जोड़ कर बोला कि मुझे शीघ्र ही बजट प्रस्तुत करना है मुझे मार्गदर्शन दीजिए | तिस पर काकभुशुडं ने कहा सो निम्नलिखित है |

हे वित्तमन्त्री, जिस प्रकार केक्टस की शोभा कांटों से और राजनीति लंपटों से जानी जाती है उसी प्रकार वित्तमंत्री विचित्र करों तथा उलजलूल आर्थिक उपायों से जाने जाते है | पर पीड़ा वित्तमंत्री का परम सुख है | कटोरी पर कर घटा थाली पर बढ़ाना, बूढ़ों पर कर कम कर बच्चों पर बढ़ाना और श्मशान से टैक्स हटा दवाइयों पर बढ़ाने की चतुर नीति जो बरतते है वे ही सच्चे वित्तमंत्री कहलाते हैं | हे वित्तमंत्री, बजट का बुद्धि और ह्रदय से कोई संबंध नहीं होता | कमल हो या भौंरा, वेश्या अथवा ग्राहक, गृह अथवा वाहन तू किसी पर भी टैक्स लगा रीढ़ तो उसी की टूटेगी जिसकी टूटनी है | हर प्रकार का बजट है | वित्तमंत्री मध्यमवर्ग को पीस देने का श्रेष्ठ साधन है |यह तेरे लिये कुविचारों और अधर्म चिंतन का मौसम है | समस्त दुष्टात्माओं का ध्यान कर तू बजट की तैयारी में लग | सरकारी कार का पेट्रोल बढ़ाने क लिये तू हर गरीब की झोंपड़ी में जल रहे दीये का तेल कम कर | अपने भोजन की गरिमा बढ़ाने के लिये हर थाली से रोटी छीन | जिसके रक्त से तेरे गुलाबों की रक्तिमा बढ़ती है उस पर टैक्स लगाने में मत चूक |

करों की सीमा, जल, थल और आकाश है | तू चर-अचर पर कर लगा, जीवित और मृत पर, स्त्री-पुरूष पर, बालक-वृद्ध पर, ज्ञात-अज्ञात पर, माया और ब्रह्म के सम्पूर्ण क्षेत्र पर जहाँ तक दृष्टि, सत्ता अथवा भावना पहुँचती है, कर लगा | श्रम पर, दान पर, पूजा-अर्चना पर, मानविय स्नेह पर, मिलन पर, श्रृंगार पर, जल दूध जैसी आवश्कताओं पर, विध्या, नम्रता और सत्संग पर, कर्म, धर्म, भोग, आहार, निद्रा, मैथुन, आसक्ति, भक्ति, दीनता, शांति कांति, ज्ञान, जिज्ञासा, पर्यटन पर, औषधि, वायु, रस, गंध, स्पर्श आदि जो भी तेरे ध्यान में आएँ, शब्दकोश में जिनके लिए शब्द उपलब्ध हो, उस पर कर लगा | अच्छे वित्तमंत्री करारोपण के समय शब्दकोश के पन्ने निरंतर पलटते रहते हैं और जो भी शब्द उपयुक्त लगता है उसी पर कर लगा देते है | जूते से कफ़न तक, बालपोथी से विदेश यात्रा तक, अहसास से नतीजों तक तू किसी पर भी टैक्स लगा दे | तेरी घाघ दृष्टि जेबों है और हे वित्तमंत्री जेबें सर्वत्र हैं

हे वित्तमंत्री, ईमानदार मेहनती वर्ग पर अधिक कर लगा जिनसे वसूली में कठनाई नहीं होगी | जो सहन कर रहा है उसे अधिक कष्ट दे | अय्याश, होशियार और हरामखाऊ वर्ग पर कम कर लगा क्योंकि वसूली की संभावनाएँ क्षीण हैं | बदमाशों, सामाजिक अपराधियों और मुफ़्तखोरों पर बिल्कुल कर न लगा क्योंकि वे देगें ही नहीं | श्रेष्ठ वित्तमंत्रीयों के बजट में पीड़ितों को पीड़ित करने के लिये होते है |

हे वित्तमंत्री, बजट को यौवन के रहस्य की तरह छुपा के रख | किसी को पता न चले कि तू सोचता क्या है | बजट का खुलना भयानक संत्रास का क्षण हो | लोग तेरे वित्तमंत्री बनने पर पश्चाताप करे | जीवन से निराश हो जाएँ | यह सूझ न पड़े कि वर्ष कैसे बीतेगा | बजट एक हंटर है, मार उन लोगों को जिसने तुझे यह हंटर दिया | बजट एक कहर है, उसे बरपा कर दे | बजट एक अड़गा है जीवन की राह में | सच्चे वित्तमंत्री वे हैं जो बदनामी में मुस्कराते हैं | सच्चा टैक्स वही है जो सुखी का सुख न बढ़ाए पर दुःखी का दुःख अवश्य दूना कर दे |

बजट समाज के प्रति तेरी घृणा की अभिव्यक्ति का श्रेक्ष्ठ माध्यम है | उसे गर्व से प्रस्तुत कर | कष्ट में पहले से डूबे मनुष्य तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते वित्तमंत्री | स्वपनों की इति ही बजट का अर्थ है यह बात ध्यान रख | इतना कह कर काकभुशुंड जी चुप हो गये और वित्तमंत्री अपना बजट बनाने चला गया |

महंगाई और सरकार

महंगाई और सरकार

बढते भावों को रोकना, महंगाई के विरुद्ध कदम उठाना, चिन्तित होना, चिन्ता को जब मौका मिले व्यक्त कर देना आदि राष्ट्रीय दायित्व है, जिन्हें हमारे बडे नेतागण, मझले नेतागण, बडे अफ़सरगण, अपेक्षाकृत कम बडे अफ़सरगण निभाते है और जब जैसा मौका लगे उस दिशा में ज़रुरी कदम उठाते हैं |

पहला कदम तो यह कि उन्हें पता होता है कि महंगाई बढने वाली है और आम लोगों का जीना मुहाल होगा | ऐसे में वे खामोश रहते हैं | सबसे भली चुप स्वर्णिम नियम का पालन करते हैं | चूँकि जिम्मेदार लोग हैं | अतः उनका ऐसा करना स्वाभाविक हैं | लोगों मैं अफ़वाहे फ़ैलती हैं | निराशा बढ़ती हैं | घबराहट होती है | इसलिए चुप रहना ज़रुरी है | कुछ ऐसे लोगों को जो स्टॉक करने क्षमता रखते हैं , उन्हें वे चुपके से बता भी देते हैं कि इस वस्तु का स्टॉक करना ठीक होगा, क्योंकि भविष्य में भाव बढने वाले हैं | पर हर किसी को बताने से फ़ायदा भी क्या?

उसका दूसरा कदम होता है चिन्तित होना | आपने अक्सर सुना और पढ़ा और सुना होगा कि सरकार या खाद्य विभाग के मन्त्री या अफ़सर बढ़ती महंगाई की समस्या को ले कर चिन्तित हैं | यह जिम्मेदारी का काम साल भर चलता रहता है | अब जैसे की चिन्ता की प्रकृति होती है, वह व्यक्त हो जाती है | खासकर अखबार के सवांददाताओं को देख वह बड़ी जल्दी व्यक्त होती है | सारे देश को जब पता चलता है कि सरकार चिन्तित है, तो उन्हें यह भी पता चल जाता है कि महंगाई और बढ़ने वाली है | वे दुःखी होते हैं | वे यही हो सकते हैं | वे महंगाई कम नहीं कर सकते और आटा-दाल खरीदे बिना रह नहीं सकते | उन्हें सांत्वना केवल इस सूचना से मिलती है कि सरकार भी चिन्तित है |

तीसरी महत्वपूर्ण बात है कि कड़ा कदम उठाना | यह एक सपना है जो सरकार को आता है और उसकी परणिति शेखचिल्ली जैसी होती है | मतलब कड़ा कदम उठाने के चक्कर में सरकार स्वयं कड़ी हो जाती है, कदम कड़ा नहीं होता, व्यापारियों को धमकी दी जाती है और भारतीय व्यापारियों की यह खूबी है कि वे सरकारी धमकियों को माइडं नहीं करते | नेताओं को यह बात अच्छी नहीं लगती कि महंगाई बढ़ाकर व्यापारी ज़्यादा कमाएँ | फ़ौरन वह व्यापारियों पर टूट पड़ती है और अपने राजनैतिक दल के लिये चंदा लिए बगैर नहीं हटती | इस तरह व्यापारियों की जेब थोड़ी हल्की हो जाती है | और इससे कड़ा कदम व्यापारियों के खिलाफ़ और क्या उठाया जा सकता है कि उनसे चन्दा ले कर उनकी जेबें थोड़ी हल्की कर दी जाए |

इस बीच बढ़ी महंगाई और बढ़ जाती है | चन्दा दे देने के बाद व्यापारियों में आत्मबल आ जाता है| इस बीच लोग भी शोर करने लगते हैं | हो-हल्ला मचने लगता है और विपक्ष को सरकार के विरुद्ध जोरदार प्वाइंट मिल जाता है |

तब सरकार अपना अंतिम जोरदार उपाय करती है | वह महंगाई को रोक पाने में असमर्थता जाहिर कर देती है | यह शानदार कदम हर आलोचक को घायल और भूलुंठित कर देता है | सरकार साफ़ कहती है कि अभी एकाएक महंगाई रोकना उसके बस की बात नहीं है | वह कुछ नहीं कर सकती | महंगाई को एक राक्षसी स्वतंत्रता मिल जाती है | नगर निवासियों को चुनचुन कर खाने की और राजा कुछ भी करने से हाथ खड़े कर देता है जाहिर है वह अपनी गद्दी तो छोड़ नहीं सकता |

इस तरह सरकार वह आदर सम्मान अर्जित कर लेता है, जो उन शक्तिहीनों को प्राप्त होता है, जो स्वीकार कर लेते हैं कि हम शक्तिहीन हैं |

उसके बाद सरकार अन्तिम जोरदार कदम यह उठाती है कि वह स्वयं उसे महँगे भाव खरीदने लगती है, जिस भाव बाज़ार में निल रहा है |

-शरद जोशी-

प्रतिदिन

मेरा बचपन हिंदी साहित्य के बीच बीता है | ऐसा नहीं है कि मेरे में कोई जन्मगत हुनर था पढ़ने का | इसका श्रेय जाता है मेरे माता-पिता को और मिस तर्वे को | दोनों का वर्षों से सहित्य से काफ़ी गहरा जुड़ाव और लगाव था | दोनों ने मिल कर हिन्दी की कई पत्रिकाएँ भी निकाली थी | कुछ मासिक, कुछ त्रैमासिक और कुछ हस्तलिखित | मेरी माँ कॉलेज में हिन्दी की प्राध्यापिका थी और पिताजी पत्रकार, यह एक और वजह थी हमारे हिन्दी से लगाव की | उन दोनों की वजह से शायद मेरी बहिन का झुकाव भी जाने-अनजाने साहित्य की तरफ़ हो चला था | ये जुड़ाव तब ज़्यादा हो गया जब माँ के कॉलेज की प्रिंसिपल मिस तर्वे ने माँ को घर बुलाया और कहा कि सरोज हम कुछ किताबें आपको देना चाहते है | जब माँ वे किताबें घर लाई तो मुश्किल यह आई कि उनको कहाँ रखा जाए | घर छोटा था | हमारे कमरे में दो अलमारियाँ थी | वहाँ उन किताबों को जमा दिया गया | पता नहीं उन किताबों की खुश्बू ही कुछ ऐसी थी कि हम किताबें उठाते और पन्ने पलटने लगते | उस समय मनोरजंन के साधन भी बहुत सीमित थे | स्कूल की पढ़ाई से उब ऊर्जारहित मन को किताबें फिर से ऊर्जा देने का साधन बन गई | प्रेमचंद की गोदान, निर्मला, रंगभूमि, कफ़न, गबन और अन्य कहानिंया, जयशंकर प्रसाद की तितली, इरावती, ध्रुवस्वामिनी, राजेन्द्र यादव की सारा आकाश और न जाने कितनी अन्य किताबें ऐसी थी जिनको सोते, बैठते और खाते समय पढ़ने का नशा सा हो गया था | मैं कभी भी कोई कविता या लेख नहीं लिख पाया | लेकिन जब मेरी बहिन जो उस समय आठवीं कक्षा में थी, स्कूल में मेरी प्रिय पुस्तक पर लेख लिखने पर जयशंकर प्रसाद की तितली की विवेचना कर डाली थी | यह प्रसंग स्कूल की अध्यापिकाओं के लिये अपच का कारण बन गया | पिताजी के अखबार निकालने के कारण अखबार पढ़ने की भी आदत में कुछ सुधार हुआ था | घर में चार पाँच अखबार आने के कारण सुबह का समयाभाव भी अखबार खंगालने में व्यवधान नहीं डाल पाया |

शरद जोशी के लेखों ने मुझे बहुत प्रभावित किया | हिंदी व्यंग्य को एक नये स्तर पर ले जाने का श्रेय उनको जाता है और मेरे अखबार पढ़ने की आदत का श्रेय उनके लेखों को बहुत हद तक जाता है | उनकी मृत्यु साहित्य के लिये तो एक बहुत बड़ा नुकसान था पर मेरे लिये उससे भी बड़ा | खाली ख़बरें पढ़ने के लिये अखबार पढ़ना मुझे व्यर्थ जान पड़ता है | उनका कॉलम ‘प्रतिदिन’ की जगह अखबार में आज भी खाली ही नज़र आती है | मैने उनके ‘प्रतिदिन’ के कॉलम को आज भी सहेज कर रख रखा है | वे लेख आज भी उतने ही तार्किक है जितने उस समय होते थे | उनमे से कुछ लेख मैं आप लोगों के साथ शेयर करना चाहूँगा |

Thursday, June 9, 2011

SOMETHING BOTHERING AND WORRYING YOU

SOMETHING BOTHERING AND WORRYING YOU??


DOES STUDYING EXHAUST YOU?

IT DOESN’T EXHAUST THEM!

DON´T YOU LIKE GREEN VEGETABLES...?

THEY HAVE NO CHOICE!

ARE YOU ON DIET ALL THE TIME...?


THEY WISH TO EAT...


DOES YOUR PARENTS’ SUPER PROTECTION BOTHER YOU?


THEY DON'T HAVE PARENTS!


ARE YOU BORED PLAYING THE SAME GAMES...?

THEY DON’T HAVE ANY OPTION!!!
DID THEY BUY YOU ADIDAS, WHEN YOU WANTED NIKE...?

THEY ONLY HAVE THIS BRAND!!!

ARE YOU UPSET THEY ORDERED YOU TO BED...?

THEY DON’T WANT TO WAKE UP!!!

DON’T COMPLAIN...
AND IF, INSPITE OF EVERYTHING, YOU KEEP GETTING YOURSELF WORRIED...

LOOK AROUND YOU.. THANK GOD
FOR EVERYTHING THAT HE ALLOWS YOU TO HAVE IN THIS BRIEF LIFE...

Wednesday, June 23, 2010

These are from a book called Disorder in the Courts of America, and are
things people actually said in court, word for word, taken down and now
published by court reporters that had the torment of staying calm while
these exchanges were actually taking place.
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ATTORNEY: Are you sexually active?
WITNESS: No, I just lie there.
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ATTORNEY: What is your date of birth?
WITNESS: July 18th.
ATTORNEY: What year?
WITNESS: Every year.
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ATTORNEY: What gear were you in at the moment of the impact?
WITNESS: Gucci sweats and Reeboks.
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ATTORNEY: This myasthenia gravis, does it affect your memory at all?
WITNESS: Yes.
ATTORNEY: And in what ways does it affect your memory?
WITNESS: I forget.
ATTORNEY: You forget? Can you give us an example of something you forgot?
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ATTORNEY: How old is your son, the one living with you?
WITNESS: Thirty-eight or thirty-five, I can't remember which.
ATTORNEY: How long has he lived with you?
WITNESS: Forty-five years.
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ATTORNEY: What was the first thing your husband said to you that morning?
WITNESS: He said, "Where am I, Cathy?"
ATTORNEY: And why did that upset you?
WITNESS: My name is Susan.
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ATTORNEY: Do you know if your daughter has ever been involved in voodoo?
WITNESS: We both do.
ATTORNEY: Voodoo?
WITNESS: We do.
ATTORNEY: You do?
WITNESS: Yes, voodoo.
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ATTORNEY: Now doctor, isn't it true that when a person dies in his sleep,
he doesn't know about it until the next morning?
WITNESS: Did you actually pass the bar exam?
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ATTORNEY: The youngest son, the twenty-year-old, how old is he?
WITNESS: Uh, he's twenty-one...
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ATTORNEY: Were you present when your picture was taken?
WITNESS: Would you repeat the question?
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ATTORNEY: So the date of conception (of the baby) was August 8th?
WITNESS: Yes.
ATTORNEY: And what were you doing at that time?
WITNESS: Uh....
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ATTORNEY: She had three children, right?
WITNESS: Yes.
ATTORNEY: How many were boys?
WITNESS: None.
ATTORNEY: Were there any girls?
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ATTORNEY: How was your first marriage terminated?
WITNESS: By death.
ATTORNEY: And by whose death was it terminated?
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ATTORNEY: Can you describe the individual?
WITNESS: He was about medium height and had a beard.
ATTORNEY: Was this a male or a female?
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ATTORNEY: Is your appearance here this morning pursuant to a deposition
notice which I sent to your attorney?
WITNESS: No, this is how I dress when I go to work.
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ATTORNEY: Doctor, how many of your autopsies have you performed on dead
people?
WITNESS: All my autopsies are performed on dead people.
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ATTORNEY: ALL your responses MUST be oral, OK? What school did you go to?
WITNESS: Oral.
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ATTORNEY: Do you recall the time that you examined the body?
WITNESS: The autopsy started around 8:30 p.m.
ATTORNEY: And Mr. Denton was dead at the time?
WITNESS: No, he was sitting on the table wondering why I was doing an
autopsy on him!
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ATTORNEY: Are you qualified to give a urine sample?
WITNESS: Huh?
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ATTORNEY: Doctor, before you performed the autopsy, did you check for a
pulse?
WITNESS: No.
ATTORNEY: Did you check for blood pressure?
WITNESS: No.
ATTORNEY: Did you check for breathing?
WITNESS: No.
ATTORNEY: So, then it is possible that the patient was alive when you began
the autopsy?
WITNESS: No.
ATTORNEY: How can you be so sure, Doctor?
WITNESS: Because his brain was sitting on my desk in a jar.
ATTORNEY: But could the patient have still been alive, nevertheless?
WITNESS: Yes, it is possible that he could have been alive and practicing
law.